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कहानी

उसके दरबार में

कैलाश बनवासी


जैसे कि मुझे पता था, मम्मी के पास कोई दूसरा टॉपिक नहीं था!

मम्मी मुझसे इस समय वही सारी बातें कर रहीं थीं जो वो ऑलरेडी कल शाम कर चुकी थीं। खीज रही थी बेटी के ससुराल वालों के लिए, स्पेशली राजू - 'हमारे दामाद की मम्मी यानी डॉली की सास के लिए! और मैं फिलहाल उन्हें सुनता हुआ कुछ नहीं सुन रहा था, बल्कि इसी उधेड़-बुन में गुम न जाने क्या-क्या सोच रहा था कि लड़की वाला होना इस समाज में जैसे एक अपराध ही है। जब से डॉली की शादी हुई है - डेढ़ साल पहले, अपना परिवार हमेशा इस प्रयास में रहता है कि भूल से भी उसके ससुराल वालों के खिलाफ कोई ऐसी-वैसी बात न निकल जाए, बल्कि तारीफ ही करते रहो चाहे वह कितनी ही झूठी क्यों न हो! मम्मी-पापा के ये बिल्कुल नए गुण मैं डॉली की शादी के बाद देख रहा हूँ। और झूठ क्यों बोलूँ, उनके साथ मुझे भी कभी-कभी ऐसी तारीफें करनी ही पड़ती है, चाहे वह कम ही हो, पर जैसे यह बहुत जरूरी हो। उन्हे नाराज करने की बात कभी कोई सोच भी नहीं सकता।

घर में भी प्रायः डॉली को लेकर चर्चा होती रहती है। उसका ससुराल, उसके सुख दुख। कभी-कभी ये इतना ज्यादा लगता है कि लगता है मम्मी-पापा को बस और कोई काम नहीं। उनका सारा ध्यान बस डॉली पर लगा रहता है, जिससे मैं बहुत बार कंझा जाता हूँ। जैसे कि इस वक्त। कि ये मम्मी भी न, लगता है सास-बहू वाले सीरियल देख-देख के एकदम ऑब्सेस्ड हो गई हैं! बोले तो एकदम टिपिकल देसी मम्मी! अपने जमाने की टेंथ तक पढ़ी होने के बावजूद। मुझे ऐसे टाइम पे मम्मी को झेलना पड़ता है। और आज तो आते-जाते दोनों टाइम झेलना पड़ेगा। कोई चारा नहीं! इसीलिए मैंने पापा को बोला था पापा आप जाओ, मैंने कंपनी के काम का बहाना बनाया था, इधर बहुत प्रेशर है बोलके, पर पापा सोफे पर अधलेटे हुए बोले, नहीं यार तुम्हीं लेके जाओ। इतनी लंबी दूरी गाड़ी चलाना मेरे बस का नहीं है। एक तो मैं वैसे ही स्पांडिलाइसिस का पेशेंट ठहरा...

सो मैं लेके जा रहा हूँ मम्मी को अपनी बाइक से। और किस कदर फालतू काम के लिए! यहाँ से पैंतालिस किलोमीटर दूर कोई गाँव है, वहाँ की कोई माता जी हैं। सुना है उनका बड़ा नाम है, और उन पर हर गुरुवार माता आती हैं, भक्तों की मनोकामनाएँ पूरी होती हैं! माता का दरबार! माइ फुट! मुझे तो ऐसे भी बहुत चिढ़ है इन सो कॉल्ड बाबाओं-माताओं से। अपना धंधा-पानी चला रहे हैं और कुछ नहीं! और अपनी पब्लिक का भी देखो न, साइंस के इतने एडवांस जमाने में भी इन सब बातों पर विश्वास करती है! अनपढ़ तो अनपढ़, पढ़े-लिखों की लाइन लगी रहती है! पर मेरी मजबूरी है। घर का काम है। डॉली की सास ने फोन पर मम्मी को कहा था, हम लोग डॉली को लेकर माताजी के पास जा रहे हैं, कुछ जरूरी बात करने। तुम लोग भी आ जाओ। फिर डॉली ने भी कहा था - आ जाओ न मम्मी। और मम्मी का क्या है, बेटी से, नातिन से मिलने का बहाना चाहिए। फिर बेटी के ससुराल वालों का बुलावा है, इसलिए टाला भी नहीं जा सकता।

हम इस समय शहर से दसेक किलोमीटर आगे आ चुके थे और देहात शुरू हो चला था। सड़क अच्छी और साफ-सुथरी। सड़क के दोनों तरफ खेत थे, जिनमें धान की फसल लहरा रही थी। इधर का खुला वातावरण शहर की भीड़-भाड़ और ट्रेफिक के शोर-शराबे की तुलना में कितना भला लग रहा था। और अभी सुबह के दस बजे मौसम भी अच्छा था। अपनी गाड़ी की स्पीड बढ़ा दी थी मैंने।

...डॉली यहाँ क्या थी और वहाँ कैसा जीवन जी रही है!

मम्मी-पापा ने या इवेन मैंने कभी नहीं सोचा था कि उसके ससुरालवाले इतनी संकीर्ण बुद्धि के होंगे! पुरानी मानसिकता के लोग! इतने ओल्ड माइंडेड जिन्हें अपनी बहू का घर से बाहर कदम रखना भी गवारा नहीं! और उसकी जरूरत की सारी चीजें घर में लाकर देने का दंभ अलग - 'क्या तकलीफ है आपकी बेटी को? घर में रानी जैसे रखते हैं'!, मैंने उसकी सास को एक बार कहते सुना था। डॉली से फोन में थोड़ी देर हाल-चाल ले लो तो उसकी सास की भौंहें टेढ़ी हो जाती हैं। और लड़का यानी दामाद राजू भी छब्बीस की उमर के बावजूद हर बात में 'मम्मी जानेगी', या मम्मी से पूछ लो' वाली मेंटलिटी का है।

शादी के बाद कितना बदल जाता है लड़कियों का जीवन! अब पूरी जिंदगी बस एडजस्ट ही करते रहो!

यहाँ जब थी डॉली तो उसने कॉलेज से निकलने के बाद कभी घर से पॉकेट-मनी नहीं माँगा। पापा इस मामले में कितने अच्छे हैं जो उन्होंने बेटियों को कभी बेटों से कम नहीं समझा। उन्होंने उनको न केवल पढ़ाया-लिखाया बल्कि इस छोटे शहर में उनको आत्म-निर्भर बनाया। जबकि मम्मी-पापा की इस उदारता पर बहुत बार भड़क जाती थीं, 'अरे लड़कियों को अत्ती छूट देना ठीक नहीं! कल को ससुराल जाएँगी तो उनको मुश्किल होगी। लड़की जात को कितना तो सहना पड़ता है!'

डॉली और रिंकी दोनों ही जब मम्मी की बात पर हँस देती थीं तो मम्मी और भड़क जातीं - तुम लोग को अभी हँसी आ रही है? अरे, तुम लोग ससुराल जाओगे न तब पता चलेगा ससुराल क्या होता है! जितने लोग उतने नखरे! और बहू का पक्ष लेने वाला वहाँ कोई नहीं होता! तब याद करोगी कि मम्मी ठीक कहती थी! हमने ये सब इसी घर में भुगता है इसीलिए कह रही हूँ!'

पर हमारा हँसना बंद नहीं होता था। लगता, मम्मी आज भी अपने ही जमाने में जी रही हैं, जबकि हमारे सामने नई दुनिया है, बहुत तेजी से बदलती हुई, जहाँ लड़कियाँ अब घर की चारदीवारियों से बाहर हैं अपनी पुरानी घरेलू छवि से परे, काम पर जाती हुईं, अपना वजूद खुद गढ़ती हुईं। हमारे ही यहाँ देखो न, बी.कॉम. करने के बाद डॉली कभी घर बैठकर नहीं रही। बी.कॉम. करते हुए ही उसने कंप्यूटर का कोई डिप्लोमा कोर्स कर लिया था, जिसके चलते ग्रेजुएशन के तुरंत बाद वह एक सी.ए. के अंडर में काम करने लगी, फिर बाद में एक प्राइवेट फाइनेंस कंपनी में जाने लगी उससे कहीं ज्यादा अच्छी पेमेंट और सुविधा पर।

सारा घर देख रहा था डॉली अपनी राह खुद बना रही है। घर से पैसे माँगना तो दूर, बल्कि घर की छोटी-मोटी जरूरतों के लिए हमेशा आगे रहती थी। घर का नया फ्लैट स्क्रीन टेलिविजन उसी का खरीदा हुआ है। तब मेरी भी नौकरी की शुरुआत थी। पापा सहकारी समिति में क्लर्क थे - एक सेमी गौरमेंट संस्था के। रिटायरमेंट के बाद जीपीएफ के पैसे-साढ़े चार लाख उन्होंने बेटियों की शादी के लिए बैंक में डिपॉजिट करा दिए... इनकम के लिए उन्होंने घर के सामने के हिस्से में छोटी-सी किराने की दुकान डाल ली है, जिसमें भले ही ढाई तीन-सौ से ज्यादा की बिक्री नहीं होती, पर मम्मी-पापा घर बैठे इसी काम में लगे रहते हैं। क्योंकि नौकरी के रिटायरमेंट से मिले पैसों के अलावा और न कोई जमा पूँजी है न पुश्तैनी प्रापर्टी। घर की हालत मुझसे कभी छिपी नहीं रही। इसीलिए तो अपना मेकेनिकल में डिप्लोमा कंपलीट होते ही मैं प्राइवेट इंडस्ट्रीज के चक्कर लगाने लगा था, और जिस कंपनी से ऑफर मिला, तुरंत ज्वाइन कर लिया। और आज तीन साल की रगड़ाई के बाद बीस हजार की सेलेरी पर पहुँचा हूँ - अभी-अभी जूनियर असिस्टेंस से प्रमोट होके सीनियर असिस्टेंस की पोस्ट पर। घर की माली हालत में थोड़ा सुधार हुआ है लेकिन अभी छोटी बहन रिंकी के ब्याह का खर्च सामने है। हालाँकि वो भी एक निजी फर्म में क्लर्क का जॉब कर रही है।

डॉली की शादी!

कई जगह बात चली। आस-पास भी और दूर भी। कहीं हमने रिजेक्ट किया तो कहीं लड़केवालों ने। सच पूछो तो ज्यादातर लड़केवालों ने। उनकी दहेज की छुपी हुई माँग हमारी क्षमता से बाहर थी। और मैंने पाया, यार, आजकल के इन लड़कों को तो बड़े घर की लड़कियों में ज्यादा इंट्रेस्ट है! उन्हें लड़की के गुणों से कोई खास लेना-देना नहीं होता, लड़की का इकॉनामिक बैकग्राउंड बढ़िया होना चाहिए!

और लड़के भी तो कैसे-कैसे! एक लड़के ने, जो पेशे से एडवोकेट था, अपने दो फुल पेज लंबे-चौड़े बॉयोडाटा में अपने तमाम खयालात लिख के दिया था - शादी के बारे में, लड़की के बारे में, अपनी पसंद के गायक-गायिकाओं, हीरो-हीरोइन के नाम तक-शाहरुख खान और ऐश्वर्या राय, और अपनी फेवरिट फिल्में - 'प्यार झुकता नहीं' और दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे', और इसके पीछे वकील साहब ने तर्क यह दिया था कि लड़के-लड़की को एक-दूसरे की पसंद-नापसंद की स्पष्ट जानकारी होनी चाहिए!

पापा तो शुरू से ही अपनी हैसियत के बराबर वालों में ही रिश्ता करने के हिमायती रहे ताकि कल को लड़की को किसी अप्रिय स्थिति का सामना मत करना पड़े। इसीलिए, जब डौंडीलोहारा कस्बे से यह रिश्ता आया तो हम सभी ने सोचा था, बड़ा अच्छा रिश्ता मिला है डॉली के लिए! एकदम छोटा परिवार...! कुल दो जनों का परिवार माँ और बेटा! तीसरा कोई नहीं। तीसरी सदस्य अब इस घर की बहू ही होगी। बड़े परिवार के अपने झमेले हैं जिससे घर में कलह और अशांति बनी रहती है। यहाँ तो कुल दो ही जने। लड़के की माँ स्कूल में टीचर है सो दिन भर तो बाहर रहेगी! और लड़के की अपनी रेडिमेड कपड़े की ठीक-ठाक चलने वाली दुकान है। फालतू लफड़ों की कोई जगह नहीं! और ऐसा छोटा परिवार तो किस्मतवालों को मिलता है! फिर सबसे अच्छी बात कि लड़का दिखने में खासा हैंडसम है... ही लुक्स लाइक अ मॉडल...! फिर जैसे डॉली खुद गोरी और सुंदर है वैसे ही यह लड़का। लड़का डॉली को पहली नजर में ही पसंद आ गया था। आना ही था!

मम्मी-पापा ने हाँ कह दी। जो भी सुनता डॉली की इस रिश्ते पर इस बात पर अपनी खुशी जाहिर करता।

फिर शादी।

पापा आज भी कहते हैं कि हमने शादी में अपनी हैसियत से कहीं बढ़-चढ़कर खर्च किया - दो-ढाई का बजट खिंचते-खिंचते चार लाख तक पहुँच गया। क्योंकि रिश्ता तय होने के बाद - इसे उनकी डिमांड तो नहीं कहेंगे, लेकिन, वो चाहते थे शादी में आजकल प्रचलित सारे तामझाम हमारे द्वारा अरेंज किए जाएँ... मसलन, बारात में फर्स्ट-क्लास बैंड की ही नहीं, दूल्हे के लिए शानदार घोड़े की भी व्यवस्था हो, रिसेप्शन पार्टी शानदार हो... डी.जे. हो... बारातियों के स्वागत-सत्कार का इंतजाम बढ़िया हो... उनके रिश्तेदारों को दिए जाने वाले कपड़ों की क्वालिटी बेस्ट हो...। हमें इसी दौरान पता चला कि उनके घर में सारे फैसले लड़के की माँ नहीं, वरन उसके तीन मामा करते हैं, जिनका राजनांदगाँव में बर्तन का खासा जमा-जमाया कारोबार है। पापा ये सोच के खर्च करते रहे कि भई, उनके सामने हम इतने भी गए-गुजरे तो न लगें, कि बेटी के ससुराल वालों को कुछ कहने का मौका मिले!

पर लड़के के घरवालों ने हम लोगों से एक बात छिपाई। हमको बताया गया था कि लड़के की माँ स्कूल में टीचर है। यह तो डॉली के ससुराल जाने के बाद भेद खुला कि वो तो स्कूल में प्यून है!

"तो हमसे झूठ क्यों बोला?'' मम्मी ने पापा से पूछा।

"अरे जाने दो।" पापा ने मम्मी को समझाने की कोशिश की, 'भई, सरकारी नौकरी है ना... बस! अपने को क्या करना है? मान लो वो स्कूल की प्रिंसिपल ही रहती तो हमको क्या मिल जाता? उनने अपने पोस्ट को छिपाया... शरम आती रही होगी... या मन में रहा होगा कि इससे मेरी इज्जत घट जाती है करके...।"

"पर भी हमको सच्ची बात बतानी चाहिए थी न? जब हमसे रिश्ता जोड़ रहे हैं तो झूठ क्यों बोलना?'' मम्मी-पापा से घर में बहस करने लगी थी।

"अरे ठीक है न भाई। ...और देखो, तुम इस बात को दामाद से या उसकी मम्मी से हरगिज मत बोलना! भई... बेटी गई है उस घर में... बात बिगड़ सकती है!'' पापा ने बात की नजाकत मम्मी के सामने रखी।

पर मम्मी इसी बात पर देर तक बड़बड़-बड़बड़ करती रहीं। आखिर उन्होंने हमसे झूठ क्यों बोला? ये तो बिल्कुल गलत बात है! हम लोगों ने तो उनसे कोई झूठ नहीं बोला! रिश्तेदारी में ऐसी झूठबाजी नहीं चलती! उनको ऐसा नहीं करना चाहिए था...।

खैर। बात आई-गई हो गई।

और कुछ महीने बाद डॉली के प्रेग्नेंट होने की खुशखबरी मिली।

डॉली अपनी ससुराल के बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहती थी। वह तो खुद अभी इस घर में एडजस्ट होने की कोशिश कर रही थी... सुबह देर से सोकर उठने की आदत उसने कुछ हफ्ते में सुधार ली थी। रसोईघर सँभालने की आदत नहीं थी। सो इसको भी उसने अपनी सासु माँ के निर्देशानुसार सँभालने की पूरी कोशिश की। घर में तीन जनों के लिए कमाई थी, पर यही उनकी सबसे बड़ी हवस थी। सबसे बढ़के। आज सोचो तो लगता है, कैसे उन्होंने इस घर की लड़की के लिए हाँ कह दिया? शायद दोनों के अधिकाधिक गुण मिलने के कारण, जो उन्होंने अपने पारिवारिक पंडित से पूछवाया था।

डॉली का ससुराल छोटा-सा कस्बा है जहाँ न अच्छे हास्पटिल हैं न अच्छे गायनेकोलॉजिस्ट, इसलिए पापा-मम्मी ने दामाद और उसकी माँ को बच्चे की डिलेवरी अपने यहाँ होने की बात पर राजी कर लिया। दामाद भी इसके लिए सहमत था। वह भी कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था। और उसकी सास के लिए तो यह और भी अच्छा था। कि वह अकेली जान कहाँ-कहाँ देखेगी? फिर बड़ा फायदा यह था कि इससे उनका खर्चा बच जाएगा। दूसरी बात उन्होंने सोची कि अपनी माँ के यहाँ डिलेवरी होने के कारण इसकी छट्ठी का खर्च भी वही लोग उठाएँगे। लेकिन डॉली की सास यह दूसरी बात मौके पर कहने के लिए छोड़ गई।

हम तो बस डॉली की डिलेवरी ठीक-ठाक हो जाए यहीं तक सोच रहे थे।

बेटी हुई। और हमारा घर नए मेहमान के स्वागत में जुट गया।

लेकिन डॉली की सास को झटका लगा था जब लड़की होने की खबर सुनी।

मम्मी ने ही बहुत खुशी-खुशी फोन करके उनको खबर दी थी - बधाई हो समधिन जी घर में लक्ष्मी आई है! डॉली को बेटी हुई है! बच्ची एकदम अपने पापा पर गई है! वैसे ही नाक-नक्श...। बहुत सुंदर है और बहुत तंदुरुस्त...।"

"अरे, बेटी हुई है...?'' ये पहली प्रतिक्रिया थी। फिर कहा था, "चलो जो है सब अच्छा है। भगवान ने जो भी दिया वह अच्छा है।"

उन्हें बेटे की चाह थी, पर हो गया बेटा।

राजू के लिए भी यह खुशखबरी उतनी नहीं थी जितना हम लोगों ने सोचा था।

मैंने राजू से कहा भी था, अरे यार, बेटी हो या बेटा... आज की डेट में सब बराबर हैं। लड़कियाँ किसी लिहाज से लड़कों से कम नहीं हैं।

मैं उसकी तसल्ली के लिए और न जाने क्या-क्या कहता जा रहा था पर वह फीकी हँसी हँसकर रह गया था मानो कह रहा हो, छोड़ो यार, ये सब मन बहलाने की बातें हैं, जबकि सचाई ये है कि वंश आज भी लड़कों से ही चलता है! घर से बाहर, इनकम के सारे काम लड़के ही करते हैं। तुम मुझको समझा रहे हो?

उसकी इस खोखली हँसी से मैंने भाँप लिया था, इन्हें बेटा ही चाहिए था, बेटी नहीं! अगर कहीं इनका वश चला होता तो बच्चा गिरवा चुके होते। पर शायद ये अभी इतने निर्मम नहीं हैं। सो बच्ची को स्वीकार कर रहे हैं, बुझे मन से ही सही।

मुझे राजू और उसके परिवार की ऐसी घटिया सोच पर सचमुच बहुत हैरानी हुई थी - किस जमाने में रह रहे हैं ये लोग? पर लगा, ये ही नहीं, ढेरों हैं ऐसा सोचने वाले! पर हम कर ही क्या सकते थे सिवा सही बात उनके सामने रखने के, समझाने के? पता चल गया था, समय से बहुत पीछे चल रहा है इसका परिवार।

डॉली भी क्या करे। उसे तो अपनी बेटी के साथ खुश रहना हैं और वह तो मन से बेटी ही चाहती थी।

यों तो तीनों मामा देखने-बोलने में बहुत अच्छे और व्यवहार कुशल नजर आते हैं, पर जिनकी असलीयत वे डॉली से ही जान पाए कि वे पक्के व्यापारी हैं और हर बात लाभ के हिसाब से सोचते हैं। जब डॉली के अपने मायके में डिलेवरी होने की बात उन लोगें ने सुनी तो अपनी बहन से बोले कि अच्छा है, और आगे उन्होंने ही यह सलाह दी थी कि अपने समधिन से कहो कि डिलेवरी के बाद बच्चे की छट्ठी भी वहीं कर लें। इसमें दो लालच थे, एक ये कि छट्ठी का उनका अपना खर्चा बच जाएगा, दूसरे, इस बहाने फिर सबके लिए कपड़े-लत्ते और जो भी वे अपनी क्षमतानुसार दे सकें, मिल जाएगा। ...यह उनकी योजना थी जिसका हमारे घर को कुछ पता नहीं था।

बच्ची के जन्म के कोई चार दिन बाद राजू की मम्मी ने फोन किया था "भाई... बच्चे की छट्ठी के बारे में आप लोग क्या सोच रहे हो?''

मम्मी सुनकर अचकचा गई, "अभी तो हम लोगों ने कुछ भी नहीं सोचा है समधिन जी। और वैसे भी ये सब तो आप लोगों को ही सोचना है न...। आपके घर की बात है।"

"अजी हम लोग... यानी राजू के मामा लोग चाहते हैं कि बच्चे की छट्ठी उसके मायके में ही धूमधाम से मनाई जाए... आखिर आपकी भी पहली नातिन है।"

"पर समधिन जी, इसके बारे में तो हम लोगों ने कुछ भी सोचा नहीं है। घर में बात करनी पड़ेगी। मैं बिट्टू के पापा से पूछकर बताऊँगी।"

बाद में पापा ने ही फोन किया उन्हें, "ऐसा है समधिन जी, हमारी स्थिति अच्छी होती तो हमारे लिए ये कोई बड़ी बात नहीं होती। अब आपसे कुछ छिपा तो नहीं है। शादी का कर्जा अभी भी हमारे ऊपर है। बिट्टू की तनख्वाह तो पूरी कर्जे पटाने में ही चली जा रही है और दुकान के भरोसे घर चल रहा है। उम्मीद है आप समझेंगे हमारी बात को।"

"अरे देखिए भाई साहब, ऐसा मौका कौन-सा बार-बार जीवन में आता है। आगे हम थोड़ी कहेंगे आपको? बस अभी की ही बात है।"

"मैंने आपको बताया न समधिन जी,'' पापा का स्वर और मुलायम हो आया, "अभी हमारे हाथ बहुत तंग है वरना हम आपको इतना कहने का मौका ही नहीं देते। हमारी बेटी को पहली संतान हुई है इसकी खुशी को हम ही जानते हैं!''

पहले वो मनाने की कोशिश करती रहीं, फिर कहने लगीं, कि अब मैं अपने भाइयों को क्या जवाब दूँगी? ...क्योंकि ये उनकी ही इच्छा है...। पर पापा ने अपने हाथ एकदम खड़े कर लिए। इसलिए मन मारकर सहना पड़ा उनको। लेकिन बात फाँस-सी गड़ी रह गई। इसी की खुन्नस उन्होंने डॉली के ससुराल पहुँचने पर निकाली थी। न सिर्फ यह कि वे अपनी-अपनी पोती से उतना प्यार नहीं करती थीं, बल्कि गाहे-बगाहे कहती रहतीं कि हमारे राजू के लिए तो एक से बढ़के एक घरों के रिश्ते आ रहे थे। हमीं लोगों ने तुम्हारे घर को चुना... अब हमीं तुम्हारे मम्मी-पापा को कुछ कहते हैं तो लगता है जैसे हम लड़के वाले नहीं, लड़की वाले है!

मम्मी ने डॉली को अपनी सास के किसी बात का बुरा न मानने की सलाह दी थी। और डॉली उसका पालन करती रही।

इधर उसके खान-पान में घर का कंट्रोल हो गया। राजू या उसकी माँ उसके हाथ में पैसे कभी नहीं छोड़ते।

राजू या सास पूछ लेती है, तुमको क्या होना बहू, तुम बता दो। अब कितनी चीजें वो गिन-गिनके बताए?

जिस लड़की के हाथ में हमेशा पैसे रहते थे, जो अक्सर घर की मदद किया करती थी, उसी को अपने खरचे, छोटी-छोटी बातों के लिए इनका मुँह देखना पड़ता है। और उनकी मरजी से ही घर में राशन-पानी आता है - एकदम नाप-तौल के। डॉली हुई सिर्फ उनकी आज्ञा मानने वाली। अब उसकी समझ में आया, ससुराल में चाहे दो लोग हों या चार, अगर वो ऐसे हैं तो एक ही बीस के बराबर! उसे मम्मी की वो बातें याद आतीं जिन पर वह कभी हँसती थी।

इस बीच एक जरा-सी बात पर मम्मी का डॉली की सास से पंगा हो गया।

डॉली के दूर के रिश्ते की एक ननद की सगाई थी राजनांदगाँव में, जिसमें शामिल होने घर से मम्मी गई थी। सगाई निपटाकर मम्मी बेटी के घर चली गई थी। अगले दिन सुबह लौटना ही था। पर सुबह जब राजू की मम्मी चानू को सेंकने जा रही थी, कि मम्मी बोल पड़ी - लाओ, मुझे दो राजू की माँ। मैं सेंक देती हूँ। मम्मी बच्चे को सेंकने लगी। सेंकते हुए उन्होंने एक बात कही, जिसकी शिकायत उन्हें इधर काफी दिनों से थी। वह थी, बच्चे की सिंकाई के लिए यहाँ दाई का इंतजाम न होना। मम्मी ने डॉली की सास से कहा, समधिन जी, चानू के लिए एक दाई क्यों नहीं लगवा देते आप लोग? डॉली को भी बच्चे की सिंकाई-विकाई नहीं आती। फिर आप भी बाहर रहती हो दिन भर। बच्चे की देह बढ़ने के लिए सिंकाई जरूरी है।' इतना सुनना था कि कब की खार खाए बैठी उसकी सास ताना मारते बोलीं "अरे कहाँ भइ, हम लोग तो गरीब लोग हैं। सारा इंतजाम तो इसके मायके से होता है न! तो क्यों नहीं इसके पापा को बोलकर एक दाई लगवा देते?''

"समधिन जी, आप गलत मतलब लगा रही हो मेरी बात का। मेरे कहने का मतलब...।"

"बिल्कुल सही मतलब लगा रही हूँ!'' भड़ककर बोलीं वो, "आपकी बेटी अब हमारे घर में है। हमारी जैसी ताकत होगी, करेंगे। आप अपनी ये रईसी दुर्ग में दिखाना! अपने घर में! ...एक छट्ठी कार्यक्रम करने को कहे तो मना कर दिए और यहाँ बोल रहे हैं ऐसा कर दो-वैसा कर दो!''

इस पर मम्मी भी चुप नहीं रहीं, जो समझ आया बोल दीं। कि एक छोटे बच्चे के लिए सौ-दो सौ महीने पगार में दाई नहीं रख सकते? ऐसा कौन-सा बड़ा भारी खर्चा है?

बात बढ़ गई। झगड़ा हो गया। वह बार-बार मम्मी को उल्टा-सीधा बोलने लगीं। जवाब में मम्मी भी चुप कहाँ रहने वाली थीं।

चार महीने हो गए। बोलचाल बंद। बीच में मम्मी ने फोन से एक बार बात करने की कोशिश की थी, पर उसकी सास ने बिल्कुल भाव नहीं दिया।

इधर मम्मी अभी-भी थोड़ा डरी हुई हैं, आखिर बेटी के ससुराल का मामला है। पर मुझे कोई डर नहीं है। मुझको लगता है ये पुराने लोग खाम-खाँ बेटी के ससुराल को हव्वा बनाकर रखते हैं। कुछ कम अक्ल तो डॉली भी है, अभी भी पुरानी लड़कियों की तरह बिहेव करती है। मुझे उसका ऐसा सब कुछ चुपचुप सह लेना पसंद नहीं। मैं समझाता हूँ, अरे हिम्मत से रहा कर। राजू को भी जो तेरे मन में है, साफ-साफ बोल दिया कर, तभी तो तुझे कुछ समझेंगे! ये क्या पुरानी लड़कियों की तरह उनकी हर बात मान लेती हो?

मेरे यों सुझाने को मम्मी बिल्कुल पसंद नहीं करतीं। कहती हैं, अरे, लड़की को ससुराल में सबको ले के चलना पड़ता है। तू लड़का है इसलिए कभी नहीं समझ सकेगा, ससुराल किसको कहते हैं!

"मुझे समझना भी नहीं है!'' मैं जवाब देता। मेरी बात पर वह और खिसिया जातीं, "इससे तो कुछ बातचीत करना ही बेकार है!''

ससुराल से जब भी डॉली घर आती है, मम्मी और वो पता नहीं दिन भर क्या खुसुर-पुसुर करते रहते हैं। बहुत बार लगता था, ये औरतों वाली बातें हैं... उनके अपने प्रॉब्लम के बारे में। मुझे खुसुर-पुसुर कभी भी ठीक नहीं लगती। पर कितना बोलूँ मैं? हाल-चाल ले लेता हूँ तो पता चलता है कि डॉली पर उसके ससुराल वाले हावी हैं... वह कोशिश कर रही है अपनी बात कहने की...पर अभी भी खुलके नहीं बोल पाती।

जब उसकी सास का मम्मी से झगड़ा हो गया तो मैंने राजू को समझाने की कोशिश की भाई, सही तो है, एक दाई तो अभी कुछ महीने के लिए रख सकते हो...। पर वह भी मम्मी के सुर में ही बात करने लगा, हमको क्या रखना है क्या नहीं इसके बारे में आप लोग हमको मत बताओ। कुछ समझ हम लागों को भी है!

और उनकी इसी समझ का एक उदाहरण है कि वे सब आज अपने तीनों मामा के कहने पर बरबसपुर गाँव जा रहे हैं। सुनते हैं कि वहाँ एक महिला हैं जिनको देवी आती है, उनसे अपना भविष्य पूछने। उसके मामा उन्हें बहुत मानते हैं। क्योंकि छोटे मामा को तीन बेटियाँ हो चुकी थीं, इनके पास आने के बाद 'माता' के आशीर्वाद से ही उनको चौथी संतान लड़का हुआ है। ...ये सब बातें कल मम्मी सबको बता रही थीं। राजू और उसकी माँ भी उनके पास इसीलिए जा रहे हैं, क्योंकि, उन लोगों ने अब तक अपने शहर के तीन जाने-माने पंडितों को दिखवा चुके हैं, सबने कहा है, चार बेटियों के बाद पाँचवे में लड़का है।

इनको पूरा विश्वास है कि माताजी के पास इसका तोड़ है।

हद है अंधविशास की भी! झींकता हूँ कि डॉली का रिश्ता कैसे घर में हो गया! पर अब कर ही क्या सकते हैं!

गाँव में 'माता' के बारे में ज्यादा पूछने की जरूरत नहीं पड़ी। गाँव के सारे लोग उन्हे जानते हैं। पता चला, उनकी ख्याति ऐसी है कि लोग दूर-दूर से उनके पास पहुँचते हैं। गाँव की कुछ संकरी गलियों को पार करने के बाद नदी जाने वाले रास्ते पर हमे उनका घर नजर आया, जो गाँव की मुख्य बसाहट से अलग उस सीमा में था, जहाँ से खेत शुरू हो जाते हैं। घर के पीछे एक तरफ कुछ आगे नदी थी, तो दूसरी तरफ दूर तक खेतों का सिलसिला था।

डॉली का परिवार और उसके तीनों मामा-ससुर का परिवार भी अभी-अभी पहुँचा था। बोलेरो में।

मम्मी अपनी तरफ से डॉली के सास के संग बात कर रही थीं, पर दिख जाता था, वह बेमन से बात कर रही हैं। लड़की वाले होने की क्या-क्या मजबूरियाँ!

गाँव का एक औसत घर। खपरैल की छानी वाला। फर्क यह कि सामने एक सजावटी गेट लगाया गया है। अभी नौरात्रि चल रही है। वहाँ और भी लोग आए थे। छोटे बच्चों के लिए तो यह मानो पिकनिक स्पॉट था। वे खूब खुश थे। अंदर आरती चल रही थी। भीतर ज्योति कलश जल रहा था।

पता चला माता आरती के बाद सबसे मुखतिब होगी। आरती के बाद माता के देवीरूप में आने के बाद सबकी समस्या सुनती हैं और उसका निदान बताती है। वहाँ वातावरण में धूप-लोभान और अगरबत्तियों की गंध भरी थी। यहाँ माताजी से मिलने का लोगों का नंबर वैसे ही लगा था, जैसे हास्पिटल में डॉक्टर से मिलने मरीजों का लगता है।

पर इसके तीनों मामा-माता जी के खास भक्त हैं, इसलिए नंबर आधे घंटे के भीतर लग गया।

बुलौवा आने पर हम सब माता के दरबार में प्रविष्ठ हुए।

'प्रणाम माता जी! प्रणाम माता जी!'

वह दस बाइ आठ का छोटा-सा गँवई कमरा था। बमुश्किल आठ फुट ऊँचा। जिसके एक दीवार के आले में देवियों के चित्र, सजे हुए थे जिनमें से कुछ को मैं जान पा रहा था। उन्हीं के साथ देश के कुछ प्रसिद्ध मंदिरों के भी चित्र थे। इन्हीं के सामने नीचे बड़ी-सी चौकी पर लाल कपड़े पर ज्योति कलश रखा था। इनके एक तरफ वह बैठी थीं, यानी माताजी।

माताजी को देख के मैं हैरान था! मैं इन माता जी को अपनी कल्पना में कोई साठ साल की बुढ़िया माने बैठा था। जबकि वह हृष्ट-पुष्ट देह की स्वामिनी युवती थीं, उम्र पैंतीस-छत्तीस की। भरे देह की वह गँवई सुंदर स्त्री थी। मैं माताजी के बाँहों के भराव और उनके उभारों को देख रहा था। पर एक पल के लिए मैं ठिठका-सा रह गया था। अचानक मुझे आभास हुआ माताजी ने मेरे इस 'देखने' को देख लिया है और मुझे अटपटा लगा कि साला मैं भी कहाँ-कहाँ क्या-क्या देखता रहता हूँ! इधर सब भक्ति-भाव से माता जी के चरण छू रहे थे। मम्मी ने मुझे भी वही करने को टोहका मारा। मैंने मम्मी को हल्की नाराजगी से देखकर माता जी को नमस्कार किया, हल्के सिर झुकाकर।

वहाँ सब माता जी के आसन के गिर्द बैठ गए। परिचय का दौर चल रहा था। माता जी आहिस्ते से मुस्कुराकर सबका परिचय सुन रही थी। उनके मामा परिवार को तो वह अच्छे से जानती थीं। नए हमी थे। डॉली, और हम यानी मम्मी और मैं।

वह सबसे हँसके बात कर रही थीं, साथ ही सबके हालचल और परेशानी पूछती जा रही थीं। मुझे इसमें कुछ भी नया और अनोखा नहीं लगा। ये सब इनके जाने-पहचाने टोटके हैं।

माताजी ने उसके बड़े मामा की एक बेटी से पूछा, "और कैसी है तू... अवनी?''

"अच्छी हूँ माता जी।"

"तू पिछली बार क्यों नहीं आई थी?''

माता के सवाल पूछने पर मामा परिवार बहुत प्रसन्न हुआ... देखो, माता जी को इसका नाम अभी तक याद है... जबकि दो-तीन बार से अधिक आई नहीं है। यही तो माता की शक्ति है!

लड़की ने कहा; "सॉरी माता जी''

"अरे ये कौन-सी भाषा बोलती है? हिंदी में बोलो। माता सब समझती है पर अपनी मातृभाषा बोलनी चाहिए।

"अरे आजकल के बच्चों की तो यही भाषा हो गई है, माता जी। अपनी मातृभाषा लोग भूलते जा रहे हैं। सबकी पढ़ाई इंग्लिश मीडियम से जो हो रही है।" राजू के बड़े मामा ने हँसकर कहा। इस पर मैं भी सचेत हो गया। अपनी पढ़ाई भी तो इंग्लिश मीडियम से हुई है। मैं डरा कि मुझसे कुछ पूछा तो हिंदी में ही जवाब देना है।

फिर वह अगले से मुखातिब हो गई।

सब अपनी-अपनी समस्याएँ बता रहे थे। जब उनकी मँझली मामी अपनी परेशानी बताने लगीं कि आजकल सपने बहुत डरावने आने लगे हैं तो मुझे लगा, अब यहाँ इनकी निजी बातें होंगी, बैठना उचित नहीं होगा। मैं उठा और अपनी भांजी चानू को गोद में उठाकर बाहर आ गया।

आँगन से होते हुए सामने आया। कुछ आगे नीम का एक बड़ा पेड़ था, उसकी छाँह में उसे खिलाने लगा। भांजी चानू के गुलगुले गाल से मैं अपने गाल छुआने लगा तो उसे अच्छा लगा। वह खिलखिला के हँसने लगी। मैं उसे यों ही खिलाने लगा। साथ ही मन ही मन राजू और उसकी मम्मी को कोसता जा रहा था कि इतनी अच्छी बेटी के होते हुए बेटे की ख्वाहिश में मरे जा रहे हैं!

थोड़ी देर बाद मैं उकता-सा गया तो चानू को गोद में लिए-लिए वहीं टहलने लगा। घर के पीछे कुछ आगे नदी बहती है, जिसके चलते यहाँ की हवा में नदी के जल की शीतलता थी। मैं वहाँ की हरियाली, खुलेपन और शांति में सुख पाने लगा। करीब बीस मिनट हो रहे थे माता जी के पास उनकी 'कांउसिलिंग' के। मुझे पक्का मालूम था कौन क्या माँग रहा होगा। मामा परिवार अपने कारोबार में और बढ़ोत्री, घर-परिवार की की सुख-शांति, डॉली की सास अपनी बहू की अगली संतान बेटा होने की माँग रही होगी, राजू अपने अच्छे धंधे-पानी की और पुत्र की कामना कर रहा होगा, ...और माता जी इन पर सलाह दे रही होगी। बहुत सोच-समझकर, जैसे वह जो सलाह देने जा रही हैं इसके पहले कभी किसी ने मानो दिया ही नहीं होगा। आधा घंटा बीत गया। मैं समझ गया, औरों को छोड़कर माता जी इनको इतना समय दे रही हैं, इसका मतलब ये लोग उनके खास भक्त हैं। हमेशा माता जी का आशीर्वाद लेने वाले। स्थायी ग्राहक।

कोई आधे घंटे बाद वे सब बाहर निकले। सबके-सब प्रसन्न और संतुष्ट नजर आ रहे थे। यहाँ तक कि राजू की मम्मी भी। पता नहीं इन माता जी ने उनको पोते प्राप्ति का क्या अचूक नुस्खा बता दिया?

डॉली ने मुझसे कहा, "माता जी आपको बुला रही है, भैय्या।"

"मुझे?'' मैं एक पल के लिए न जाने क्यों सहम-सा गया। मुझे तो वो जानती भी नहीं!

मैंने पूछा, "क्यों?''

"अब ये तो माता जी ही जानेंगी।" उनके बड़े मामा ने हँसकर कहा।

मम्मी बोलीं, 'बिट्टू, अच्छे-से आशीर्वाद लेना माता जी का। माता जी ने कहा है कि वो तुमसे अकेले में कुछ बात करना चाहती हैं।"

मेरी धड़कन और तेज हो गई। पता नहीं क्या मामला है? कहीं माता जी को मेरा उनके पैर नहीं छूना बुरा तो नहीं लग गया? या कोई और बात... कहीं मेरा उन्हें 'देखना'...?

मैं धड़कते मन से वहाँ दुबारा में गया।

"दरवाजा बंद कर दो। तुमसे अकेले में बात करनी है।" माता जी ने जब कुछ सूखे अंदाज में कहा तो मेरी घबराहट और बढ़ गई। अपनी नास्तिकता का गुरूर न जाने कहाँ हवा हो गई। फिर भी मैंने खुद को सँभाला, देखते हैं यार...।

कमरे में अब दिए की लौ की मद्धम पीली रोशनी थी। माता जी का भरा-भरा गोल चेहरा इस लौ में दिपदिपा रहा था।

"बैठ जाओ।" उन्होंने धीमे स्वर में आदेश दिया।

"जी।" मैं एकदम आज्ञाकारी छात्र बनकर उनके सामने बिछी चटाई में पालथी मारकर बैठ गया जहाँ अभी मामा का परिवार बैठा था। चटाई में अभी उनके बैठने की गरमाहट बाकी थी। वह कमरा जो थोड़ी देर पहले भक्तिमय लग रहा था अब मुझे बहुत रहस्यमय जान पड़ा। कहीं सच में इनके पास कोई दैवीय शक्ति तो नहीं...?

"आप डॉली के बड़े भाई हैं?''

"जी।"

"क्या करते हैं?

"एक कंपनी में इंजीनियर हूँ।"

"आपकी शादी हो गई है?'' उनका स्वर बहुत सहज था, बस एक छोटी-सी जिज्ञासा।

"जी नहीं।" मुझे समझ नहीं आया इन्हें मेरी शादी होने न होने से क्या लेना-देना।

"आप डॉली के लिए क्या चाहते हैं?'' उनका स्वर जरा सख्त हो गया।

"क्या चाहूँगा... सिवा इसके कि डॉली अपने घर में अच्छे से रहे।"

"आपको पता है, उसकी सास अब उससे एक पोता चाहती है?'' उसके लहजे मैं उसकी शिक्षा का स्तर पता लगाने की कोशिश कर रहा था। शायद बारहवीं पास है। पक्का।

मैंने कहा, "हाँ, डॉली बताती है, उसकी सास यही बात करती रहती हैं... इसी वजह से तो वो आपके पास आए हैं।"

"तुमको क्या लगता है, मैं ऐसा कर सकती हूँ?'' वह सीधे तुम पर आ गईं। मेरी समझ को मानो आजमातीं।

मैं सिटपिटा गया, "लोग आपके पास दूर-दूर से इसी उम्मीद में तो आते हैं...। कुछ पूरी होती होंगी तभी तो... अब मैं क्या बताऊँ...।"

"तुम अपनी बात बताओ।" वह अब सीधे मुझे देखने लगीं।

मुझे अब माता जी दिलचस्प लगने लगीं, जो दूसरे के मन में है उसे जान ही लेना चाहती हैं, भले ही वह उनके खिलाफ ही क्यों न हो! इंट्रेस्टिंग!

मैंने अपने ऊपरी आवरण को अब एकदम हटा फेंका, "मैं ऐसे किसी के आशीर्वाद से मनचाहा बच्चा हो जाने की बात पर यकीन नहीं करता।"

"मतलब साइंस ले के पढ़े हो।"

"हाँ।"

"मुझको लगता है, डॉली उस घर में पूरी तरह खुश नहीं है।"

"बिलकुल सही पकड़ा आपने!'' मैं अपने उत्साह में कुछ जोर से बोल गया तो उनने डपट दिया... हूँ... आवाज नीचे...।"

"ओह आयम सॉरी!'' मुझे फिर यहाँ अपनी भाषाई गलती याद आ गई, कहा, "...मतलब माफी... अ... क्षमा...।" वह मुस्कुरा पड़ी मेरे यों हड़बड़ाने पर।

कहा, "तुम बोल सकते हो... जिस भाषा में तुम्हें बोलना हो।" अब वह एक अर्थपूर्ण मुस्कुराहट के साथ मुझे देख रही थी, सीधे... एक खास छुपे हुए मतलब के साथ... और मैं उस मतलब को पूरी तरह पकड़ पाने की कोशिश में था।

"तुमको पता है, डॉली की सास अपने भाइयों को बहुत मानती है... उन्हीं के कहने मुताबिक घर चलता है।"

"जी।"

"और वे लोग मुझको बहुत मानते हैं। पिछले चार सालों से।"

"हाँ, ये तो दिख रहा है।" मैं समझ नहीं पा रहा था माता जी का लक्ष्य क्या है।

वह उसी तरह ठहरे स्वर में बोलीं, "मैं डॉली की मदद कर सकती हूँ... उसके घर में और अच्छे से रहने के लिए... मैं उनके मामा लोगों से जैसा कहूँगी वो करेंगे...। लेकिन...।"

"लेकिन क्या?'' मेरे मुँह से एकदम निकला।

"इसके लिए मेरी एक शर्त है...।"

"शर्त? कैसी शर्त...?''

मैं घबराया। मुझे लगा, अब यह देवी जी मुझसे कुछ रुपयों की माँग करेंगी...। पाँच हजार या दस हजार या बीस हजार... कि देवी का यज्ञ कराना है... कि माता जी का मंदिर बनवाना है... कि मंदिर में कलश चढ़वाना है... वही पुराने हथकंडे! मैं मन ही मन इसके लिए खुद को तैयार कर रहा था। और उनका चेहरा इस समय इतना सपाट था कि कुछ भी बाहर नहीं निकल के आ रहा था। सारे भाव सख्त आवरण के नीचे दबे थे, जिसे मेरी हाँ से जिसे खुलना था।

वो कैसे?

"अपना मोबाइल नंबर मुझे देना। मैं तुमको कॉल करूँगी। एक शाम तुमको यहाँ आना पड़ेगा... अकेले...। और रात रुकना पड़ेगा...? बोलो...?'' वह इतने निर्विकार भाव से मुझे देख रही थीं जैसे इसमें कुछ भी विशेष बात न हो, और मानो रोजमर्रा की बात हो।

मैं अब उनके चेहरे को गौर से देखने लगा, जिसके लिए वह तैयार थीं। उनका तांबई चेहरा अब हल्के-हल्के पिघलने लगा, और उनका आकर्षण मेरे भीतर अपने-आप बढ़ने लगा। फिर एक नामालूम-सी स्मित से उसके भरे-भरे होंठ के किनारे जरा तिरछे हो गए...। फिर कुछ देर बाद उनकी अजनबियत मेरे लिए जाती रही और वह अब वह खुल के मुस्कुरा रही थीं।

जवाब में मैंने पहले उनके हाथ पकड़े... इस पर वह धीमे से हँस पड़ीं... उनकी हँसी सचमुच सुंदर थी। फिर मैंने उन्हें अपनी ओर खींच लिया। कसके भींच लिया। मेरी हथलियाँ उनके पीठ के पसीने के ठंडेपन से भर गईं।

थोड़ी देर बाद हम सारे लोग माता जी के दरबार में फिर से बैठे थे।

वह सलाह दे रही थीं, "राजू, तुम चाहते हो कि तुम्हारा अगला बच्चा बेटा हो तो अभी इसका एक ही उपाय है अगर तुम कर सको... कि आने वाले चार साल तक तुम दोनों की कोई और संतान नहीं होनी चाहिए।" फिर मामा जी से मुखातिब होकर बोलीं, "देखिए, आपके लिए ये बहू लक्ष्मी के जैसी है। आप के कारोबार में इसके आने के बाद नफा हो रहा है... बोलिय, सच है कि नहीं...?''

"सच है माता जी!'' बड़े मामा जी बोले।

"इसीलिए कह रही हूँ, आप लोग अपनी भांजे-बहू का खास ध्यान रखेंगे...।"

"जी माता जी! ...जी माता जी! उसके मामा-मामी मुस्कुराके कहने लगे, अजी, हम अपनी बहू का पूरा ध्यान रखेंगे। बिल्कुल ध्यान रखेंगे माता जी!''

"और आप भी...!'' उन्होंने अब डॉली की सास से कहा।

डॉली की सास ने झटपट हामी भर दी।

फिर माताजी ने एक उड़ती-सी नजर से मेरी तरफ देखा, जिसमें सब कुछ प्लान के मुताबिक होने का संतोष था, और आँखों में एक महीन मुस्कान बहुत हल्के-से चमक रही थी। मैंने उन्हें झट-से आँख मार दी।

उनके बुलाने पर जब एक शाम मैं वहाँ पहुँचा, उनके पतिदेव बच्चों को लेकर दो दिन के लिए किसी रिश्तेदारी में बाहर गए हुए थे, और घर के बूढ़े नौकर को आज जल्दी छुट्टी देकर कर भेज दिया था। और उनके घर में लोगों का समय-बेसमय आना गाँव में कोई नई बात बिल्कुल नहीं थी।

मुझे आज एक अलग कमरे में बिठाया था उन्होंने। यह कमरा शायद मेहमानों के लिए था। अपेक्षाकृत साफ-सुथरा। मैं तब बहुत विस्मित रह गया था जब व्हिस्की का एक क्वार्टर, काँच के दो गिलास, पानी का जग और साथ में खाने का कुछ नमकीन मेरे सामने के टी-टेबल पर रख दिया था।

थोड़ी देर के बाद वह कमरे का किवाड़ बंद कर रही थीं।


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